एक परिवार एक कार का नियम बने।

मीडिया की खबरों के अनुसार पिछले दिनों दिल्ली का प्रदूषण सूचकांक शीर्ष पर पहुंच गया है, और फिर एक बार देश की राजधानी में प्रदूषण चिंता का विषय बना है। भारत के बढ़ते हुए प्रदूषण को लेकर अमरिका के राष्ट्रपति श्री डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान भारत को गंदा देश बताया था। मैं डोनाल्ड ट्रम्प की विचारधारा से न पहले सहमत रहा हूँ, न अभी हूँ और कभी रहूँगा भी नहीं बल्कि लगभग उनका आलोचक हूँ। परन्तु दिल्ली प्रदूषण के आंकड़ों ने जिसके अनुसार प्रदूषण सूचकांक 405 तक पहुंच गया यह डोनाल्ड ट्रम्प की टिप्पणी को सही सिद्ध कर रहा है, भले हो टिप्णी किसी भी कारण से की गई हो।


दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री केजरीवाल ने भी इस सत्य को स्वीकारा है और दिल्ली में प्रदूषण को कम करने के लिए शहर के भीतर को नये उद्योग न लगाने का फैसला किया हैयद्यपि यह सव स्वीकृत सत्य है, और यह इस धारणा की पुष्टि भी करता है कि राजधानी के प्रदूषण में किसानों के पराली जलान की कोई बड़ी भूमिका नहीं है। दिल्ली के प्रदूषण का अध्ययन करने वाली समितियों ने अपनी रपट में कहा है कि दिल्ली के प्रदूषण में पराली की हिस्सेदारी मात्र 5 प्रतिशत हैइसका अर्थ साफ हुआ कि, 95 प्रतिशत प्रदूषण कारा – कारखानों से उत्पन्न हाता है


जो स्थिति दिल्ली की है वैसो स्थिति देश के सभी महानगरों, बड़े शहरों की भी है। अब तो यहां तक की यह बीमारी तहसीलों तक की हो गई हैमहानगरों में कारखानों से होने वाला प्रदूषण भी अब घटकर 20 प्रतिशत हो गया है, जो पहले 40 प्रतिशत था और उसकी एक वजह यह भी है कि महानगरों के पुराने बड़े कारखाने जैसे कपड़ा मिले, जूट मिले, आदि बंद हो चुकी है। इस प्रदूषण को कम करने में कोई सरकार की विशेष भूमिका नहीं है बल्कि कारखानेदारो की लाचारी है कि उन्हें अपनी पुरानी मशीनें व तकनीक जिसमं ज्यादा श्रमिक लगते है जिससे बगैर मुआवजे के निजात पाना है और इसलिए उन्होंने ऐसे उपाय किए है ताकि उन्हें कारखाना बंदी का वैधानिक हक मिल जाएनगर निगमों से लेकर न्याय पालिका तक, सरकारों से लेकर मीडिया तक जाने अनजाने सभी उनके सहयोगी बने ह। जस्टिस कुलदीप सिंह का फैसला तो न केवल उन्हें सहायक बना, बल्कि वह अमरवेल साबित हुआजिसके चलते उद्योगपति देश की करोड़ों एकड़ उस महंगी जमीन के मालिक बन गए जो अब उद्योगपति देश की करोड़ों एकड़ उस महंगी जमीन के मालिक बन गए जो अब महानगरों और बड़ शहरों के बीचों बीच है। और यह बेशकीमती भी है। जहां एक एक वर्गफुट जमीन की कीमत लाखों रूपये में है। और यह जमीन वह जमीन है जो एक जमाने में किसानों से मिट्टी के मोल अधिग्रहित की गई थी और उन्हें बेदखल किया गया था। आज भी सरकारे उद्योगपतियों के पैसे की चकाचौंध में वही पुराना पाप दुहरा रही है। तथा किसानों की खेती, जमीन को पुनः अधिग्रहण कर उद्योगों को दिया जा रहा हैहम लोग लगातार सरकारों से कह रहे है कि नए कारखानों के लिए नई जमीनों का अधिग्रहण नहीं किया जाए बल्कि उन्हें या तो सरकार की मदद से अनउपजाऊ जमीन पर लगाया जाए या जो पौने सात लाख कारखाने घाटे के नाम पर बीमार घोषित कर बंद कर दिए गए है, उनकी जमीन पर लगाया जाए। क्यों कि वह जमीन वस्तुतः कारखाने लगाने के उद्देश्य से पूर्व में अधिग्रहीत की गई थी।


प्रदूषण रोकने की जवाबदारी मुख्यतः प्रदूषणकर्ता की होना चाहिए, परन्तु देश की नीति और नीति निर्माताआ की नीयत में फर्क हैवह प्रदूषण पैदा करने वाले कारखानों और कारणों को नियंत्रित करने के बजाय उसकी जिम्मेवारी सरकार के रूप में खुद उठाने का निर्णय करते है, और एक तरफ जिस जनता से ताली पिटवाकर वोट लेते है उसी जनता के खजाने पर बाझ डालते हकानून ता यह बनना चाहिए कि, जब तक किसी कारखाने में प्रदूषण निरोधक यत्र स्थापित न हो तब तक उसे शुरू ही न होने दिया जाएपरन्तु उद्योग जगत अपनी पूँजी को गैर लाभकारी काम में नहीं लगाना चाहता। उसे इंसान की जान से खेलने में कोई हिचक नहीं है और वह अपनी तिजोरो के माल को बढ़ाने के लिए अनैतिक, राजनैतिक और इस प्रकार के आर्थिक अपराध करने को तैयार है।


पिछले दिनों दिल्ली में प्रदूषण के नाम पर कई प्रयोग हुए जो या तो अव्यवहारिक थे या दिखाऊ और यह मानने के लिए पर्याप्त और ठोस कारण है कि इन प्रयोगों के पीछे ही कहीं न कहीं उद्योग जगत के पैसे की भूमिका या दबाव रहा है। दिल्ली सरकार ने ही कुछ वर्ष पहले सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी के बाद ऑड-ईविन का प्रयोग कुछ दिन किया थासुप्रीम कोट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने न्याय पीठ पर बैठकर टिप्पणी की थी कि, “दिल्ली में प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि मेरा नाती याने बेटे का बेटा छोटी सी उम्र में अस्थमा का शिकार हो गया है।' यद्यपि मेरी नज़र में माननीय न्यायाधीश महोदय की टिप्पणी अन्यायकारी थी क्योंकि उन्हें दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण की याद और चिंता जब आई जब उनके नाती को अस्थमा हुआ


दिल्ली की सवा करोड़ आबादी के 70-80 लाख गरीब लोग दशकों से प्रदूषण के शिकार हो रहे है। अनेको प्रकार की बीमारियों के शिकार होते रहे हैधीमे और जहरीली मौत से मरने को लाचार होते रहे है। परन्तु तब न्यायपालिका, सत्ता और प्रशासन तंत्र को प्रदूषण का ध्यान नहीं आया और इसी समय दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल ने कुछ समय के लिए ऑड ईविन आधार पर कारो के चलाने की नीति तैयार कीइसका अर्थ था कि, एक दिन ऑड नम्बर की यानि 1-3-5-7-9, वाली गाड़ियां चलेगी, दूसरे दिन ईविन नम्बर की यानि 2-4-6-8 की गाड़ियां चलेगीसरकार का तर्क था कि, इससे दिल्ली का प्रदूषण कम हो जाएगा। क्योंकि इससे सड़क पर चलने वाली गाड़ियाँ कम हो जाएगी। बहुत थोड़े समय यह हुआ भी परन्तु वह कोई महत्वपूर्ण नहीं थादिल्ली में प्रतिदिन औसतन 5 लाख लोग अपन निजी कार्यों से आते-जाते है और उन्होंने उस समय के लिए आपस में ही यह व्यवस्था बना ली कि जिस नम्बर की गाडो जिस दिन चलना है उस दिन की गाड़ी को ले जाए। इसका दूसरा परीणाम यह हुआ कि दिल्ली के संपन्न लोगों ने जिनके पास वैधानिक और अवैधानिक कमाई का अम्बार है, एक-एक गाड़ियां और खरीद ली। याने अब उसके पास ऑड और ईविन नम्बर की दो-दो गाड़ियां हो गई और वे दिल्ली की सड़कों पर पूर्व की भाँति धुंआ फेंकती रहीमैंने उस समय भी कहा था कि, यह कार उद्योग जगत का सोचा समझा षड़यंत्र है। जिनकी गोदामों में लाखों कार खड़ी थी और जिनकी बिक्री नहीं हो पा रही थीपरन्तु न्यायपालिका की एक टिप्पणी और दिल्ली के सरकार के एक नाटकीय फैसले ने लाखों कारों की बिक्री करा दी व उनका डम्प माल बिक गया और कार उद्योगपतियों ने लाखों रूपया कमा लिया। मैं नहीं जानता हूँ कि, न्यायपीठ की टिप्पणी और सरकार का ऑड ईविन का फैसला निशुल्क था या सशुल्क था, परन्तु परिणाम यही हुआ।


हमारी लो.स. पार्टी लगभग 2 दशकों से यह माँग कर रही है कि देश में एक परिवार एक कार एवं पहले पार्किंग फिर कार की नीति बनाई जाए। परन्त सरकारों का ध्यान इस पर नहीं ह, क्योंकि इस प्रकार के फैसले राजनीति का चंदा देने वाले, कार उद्योगपतियों के लिए अनुकूल नहीं है। अगर यह कानून बन जाए तो दिल्ली शहर में जहाँ आज 80 लाख से अधिक कारें है, मुश्किल से 5-6 लाख कारे बचेगी। लोग विशेषतः परिवार के लोग मिल जुलकर यात्रा करना सीखेंगे और अकेले दिल्ली राजधानी में कम से कम 70 लाख कारे स्थाई तौर पर सड़क पर चलना बंद हो जाएंगी। समूचे देश में लगभग 4-5 करोड़ कारे चलना बंद हो जाएंगीइसका अर्थ होगा कि औसतन 100 करोड़ लीटर पेट्रोल जिसकी कीमत आज के अनुसार लगभग 7 हज़ार करोड़ रूपया प्रतिदिन, 2 लाख 10 हजार करोड़ प्रति माह और लगभग 25 लाख करोड़ प्रति वर्ष की है उसकी बचत होगीधुआं खत्म हो जाएगा, तेल आयात करने के नाम पर खर्च होने वाली विदेशी मुद्रा भी घट जाएगी और कारों का लालच और उसके लिए किए जाने वाला भ्रष्टाचार तथा कारों से होने वाली दुर्घटनाएं भी कम हो जाएंगीहम लोग यह भी माँग करते रहे है कि, सड़क की डिजाइन में अनिवार्य रूप से साइकिल ट्रेक बनाए जाए परन्तु आज तो सड़को पर साइकिल चलाने का ट्रेक तो छोड़िए पैदल चलने का मतलब है कि ही बगैर माँगे मौत मिलना।


मैं सोचता हूँ कि, शायद यमराज जिनकी कल्पना जिस समय की गई होगी उस समय दुनिया की आबादी कुछ लाख ही होगी। परन्तु उनका कार्यालय भी आज की आठ अरब की दुनिया और कारों वाली दुनिया की मौत का हिसाब किताब कसे रखता होगा? यह मेरी समझ के परे है।


बहरहाल मैं पुनः देश की सरकार से माँग करता हूँ कि :


1. समूचे देश में एक परिवार एक कार का कानून लागू किया जाए


2. जिनके पास निजी पार्किंग है, उन्हें कार खरीदने का अधिकार हो तथा बगैर पार्किंग की कार के मालिकों को 06 माह तक का समय पार्किंग की व्यवस्था करने के लिए दिया जाए अन्यथा उनकी गाड़ियां जप्त की जाए


व्यवस्था करने के लिए दिया जाए अन्यथा उनकी गाड़ियां जप्त की जाए3. समूचे देश में सड़कों की योजना में साईकिल ट्रेक देश के निर्माण को अनिवार्य किया जाएऔर साइकिल दुर्घटनाओं में मरने वाले व्यक्ति को कम से कम 5 करोड़ का मुआवजा दिया जाए ऐसा कानून बनाया जाए4. सड़क दुर्घटना के लिए चालक के साथ-साथ मालिक को भी जिम्मेवार माना जाए ताकि बड़े लोगों की सन्तानों के पाप का दंड गरीब चालक को मिलने के बजाय मालिक को भी मिले। आखिर चालक के चयन और गाड़ी कि गति सीमा तय करने में मालिक का भी हाथ होता है


5. शहरों या नगरों में चलने वाले वाहनों की स्पीड सीमा बाधी जाए याने वाहन ऐसे बनाये जाए कि उनकी गति सीमा 60 से अधिक न हो